Date : January 22, 2025


nazm-on-love

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इश्क़ पर ये शायरी आपके
लिए एक सबक़ की तरह है, आप इस से इश्क़ में जीने के आदाब भी सीखेंगे और हिज्र-ओ-विसाल को गुज़ारने के तरीक़े भी. ये पहला ऐसा ख़ूबसूरत काव्य-संग्रह है जिसमें इश्क़ के हर रंग, हर भाव और हर एहसास को अभिव्यक्त करने वाले शेरों को जमा किया गया है.आप इन्हें पढ़िए और इश्क़ करने वालों के बीच साझा कीजिए.

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे

जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे

हम जीते-जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा

फिर आख़िर तंग आ कर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

मोहब्बत हो गई तुम से

तुम्हें इक बात कहनी थी
इजाज़त हो तो कह दूँ मैं

ये भीगा भीगा सा मौसम
ये तितली फूल और शबनम

चमकते चाँद की बातें
ये बूँदें और बरसातें

ये काली रात का आँचल
हवा में नाचते बादल

धड़कते मौसमों का दिल
महकती ख़ुश्बूओं का दिल

ये सब जितने नज़ारे हैं
कहो किस के इशारे हैं

सभी बातें सुनी तुम ने
फिर आँखें फेर लीं तुम ने

मैं तब जा कर कहीं समझा
कि तुम ने कुछ नहीं समझा

मैं क़िस्सा मुख़्तसर कर के
ज़रा नीची नज़र कर के

ये कहता हूँ अभी तुम से
मोहब्बत हो गई तुम से

ताज-महल

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ’नी

सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मअ’नी

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता

मुर्दा-शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता

अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के

लेकिन उन के लिए तश्हीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस थे

ये इमारात ओ मक़ाबिर ये फ़सीलें ये हिसार
मुतलक़-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूँ

सीना-ए-दहर के नासूर हैं कोहना नासूर
जज़्ब है उन में तिरे और मिरे अज्दाद का ख़ूँ

मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिन की सन्नाई ने बख़्शी है उसे शक्ल-ए-जमील

उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नुमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़िंदील

ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से

दीवानगी रहे बाक़ी

तू इस तरह से मिरी ज़िंदगी में शामिल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है

हर एक रंग तिरे रूप की झलक ले ले
कोई हँसी कोई लहजा कोई महक ले ले

ये आसमान ये तारे ये रास्ते ये हवा
हर एक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने से

कई दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से
मिरी तलाश तिरी दिलकशी रहे बाक़ी

ख़ुदा करे कि ये दीवानगी रहे बाक़ी

ख़्वाब

खुले पानियों में घिरी लड़कियाँ
नर्म लहरों के छींटे उड़ाती हुई

बात-बे-बात हँसती हुई
अपने ख़्वाबों के शहज़ादों का तज़्किरा कर रही थीं

जो ख़ामोश थीं
उन की आँखों में भी मुस्कुराहट की तहरीर थी

उन के होंटों को भी अन-कहे ख़्वाब का ज़ाइक़ा चूमता था!
आने वाले नए मौसमों के सभी पैरहन नीलमीं हो चुके थे!

दूर साहिल पे बैठी हुई एक नन्ही सी बच्ची
हमारी हँसी और मौजों के आहंग से बे-ख़बर

रेत से एक नन्हा घरौंदा बनाने में मसरूफ़ थी
और मैं सोचती थी

ख़ुदा-या! ये हम लड़कियाँ
कच्ची उम्रों से ही ख़्वाब क्यूँ देखना चाहती हैं

ख़्वाब की हुक्मरानी में कितना तसलसुल रहा है!

ताज-महल सी लगती हो

सर पे अपने जूड़ा बाँधे
माँझी की उम्मीद लगाए

भीगी उजली सुब्ह में तुम
कोहरे की चादर में लिपटी

नदी किनारे सोच में गुम
ताज-महल सी लगती हो

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए

यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म

रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

तन्हाई

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं
राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़

सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिए क़दमों के सुराग़

गुल करो शमएँ बढ़ा दो मय ओ मीना ओ अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं कोई नहीं आएगा

आख़िरी दिन की तलाश

ख़ुदा ने क़ुरआन में कहा है
कि लोगो मैं ने

तुम्हारी ख़ातिर
फ़लक बनाया

फ़लक को तारों से
चाँद सूरज से जगमगाया

कि लोगो मैं ने
तुम्हारी ख़ातिर

ज़मीं बनाई
ज़मीं के सीने पे

नदियों की लकीरें खींचीं
समुंदरों को

ज़मीं की आग़ोश में बिठाया
पहाड़ रक्खे

दरख़्त उगाए
दरख़्त पे

फूल फल लगाए
कि लोगो मैं ने

तुम्हारी ख़ातिर
ये दिन बनाया

कि दिन में कुछ काम कर सको तुम
कि लोगो मैं ने

तुम्हारी ख़ातिर
ये शब बनाई

कि शब में आराम कर सको तुम
कि लोगो मैं ने

तुम्हारी ख़ातिर
ये सब बनाया

मगर न भूलो
कि एक दिन मैं

ये सारी चीज़ें समेट लूँगा
ख़ुदा ने जो कुछ कहा है

सच है
मगर न जाने

वो दिन कहाँ है
वो आख़िरी दिन

कि जब ख़ुदा ये तमाम चीज़ें समेट लेगा
मुझे उसी दिन की जुस्तुजू है

कि अब ये चीज़ें
बहुत पुरानी

                                 बहुत ही फ़र्सूदा हो चुकी हैं

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