Dard Bhari Shayari

दर्द पर शेर Dard Bhari Shayari
दर्द और तकलीफ़ ज़िन्दगी ही नहीं शायरी का भी बहुत अहम हिस्सा है। अपनों से मिलने वाले दर्द तो शायरों ने ता-उम्र कलेजे से लगाए रखने की जैसे क़सम खा रखी है यहाँ तक कि कई तो इस दर्द का इलाज कराने तक को तैयार नहीं। दर्द की कायनात इतनी फैली हुई है कि उर्दू शायरी अपनी इब्तिदा से लेकर आज तक इसके बयान में मसरूफ़ है। दर्द शायरी की इसी बे-दर्द दुनिया की सैर करने चलते हैं रेख़्ता के इस इन्तिख़ाब के साथः
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूका तो तुझ से भी न खाया जाए
– गोपालदास नीरज
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
– साहिर लुधियानवी
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
और जो दिल ही न हो तो क्या कीजे
– मंज़र लखनवी
हाल तुम सुन लो मिरा देख लो सूरत मेरी
दर्द वो चीज़ नहीं है कि दिखाए कोई
– जलील मानिकपूरी
एक वो हैं कि जिन्हें अपनी ख़ुशी ले डूबी
एक हम हैं कि जिन्हें ग़म ने उभरने न दिया
– आज़ाद गुलाटी
आओ दुख दर्द बाँट लें ‘एजाज़’
रंज-ओ-ग़म को इधर-उधर कर लें
– ग़नी एजाज़
प्यास बुझाने आते हैं दुख दर्द परिंदे रात गए
ख़्वाब का चश्मा फूटा था आँखों में अब तक जारी है
– सिदरा सहर इमरान
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
– अहमद फ़राज़
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
– मिर्ज़ा ग़ालिब
मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं
– फ़रहत एहसास
गिले इतने कि आसमानों
पे इंकलाब लिख दूं!
फलसफे इतने कि
जज़्बातों के सैलाब लिख दूं!
बेकरारी इतनी की मंज़िलों
के सारे रुआब लिख दूं!
सलामतें इतनी कि उसके
तोहफे बेहिसाब लिख दूं!
शिकवे इतने कि रिश्तों
के सारे हिज़ाब लिख दूं!
हौंसले इतने कि खयाल
अपने सारे बेताब लिख दूं!
मिले कभी फुर्सत तो राहों
के मैं सारे हिसाब लिख दूं!
इनायतें इतनी कि मुकद्दस
सी इक किताब लिख दूं!
मेरी बेचैनी तन्हाइयों का मुनाफा है मगर अचानक हवा किधर से आई जो तेरी याद लेकर आई है
मेरा हाल मत पूछो अंधेरे में घिरा हूं फिर भी खुली छत पे टहल रहा हूं भरोसा देने तेरी याद आई है
खुली छत है चांद बादलों की ओट में छुपा देख रहा है उसे भी शायद आज किसी की याद आई है
याद करूं अजनबी बन के हम दोनों मिले थे गली के मोड़ पे उस गली ने दास्तां यादों की दोहराई है
तुझको धड़कनों में बसाने खातिर दर्द जो सहा मैंने वो दर्द आज आइना बन कर सरे आम दोहराई है
तू हमेशा कहती थी ना के ख्याल नही रखता अपना,
देख आज तू ही मुझे इस बेखयाली में डाल गई.
तू अगर छोड़ के जाने पे तुला है तो जा,
जान भी जिस्म से जाति है तो कब पूछती है.
यूही नही काले घेरे आंखों के नीचे बढ़ रहे है,
हम आज भी घटित हुए उस हादसे से लड़ रहे है.
दिलों में खोट है, जबान से प्यार करते है,
बहुत से लोग दुनिया में, यही व्यापार करते है.
मैं भूल जाता हु तुझे फिर भी ख्यालों में आती है तू,
खुली आंखों में आकर ख्वाब दिखाती है तू,
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
दर्द ऐसा है कि जी चाहे है ज़िंदा रहिए
ज़िंदगी ऐसी कि मर जाने को जी चाहे है
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब
मेरा अपना ही भला हो मुझे मंज़ूर नहीं
इश्क़ की चोट का कुछ दिल पे असर हो तो सही
दर्द कम हो या ज़ियादा हो मगर हो तो सही
जलाल लखनवी
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
जाँ निसार अख़्तर
आज तो दिल के दर्द पर हँस कर
दर्द का दिल दुखा दिया मैं ने
ज़ुबैर अली ताबिश
क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है
हफ़ीज़ जालंधरी
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारागर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे
शकील बदायूनी
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
शकील बदायूनी
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता
चकबस्त बृज नारायण
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
और जो दिल ही न हो तो क्या कीजे
मंज़र लखनवी
आदत के ब’अद दर्द भी देने लगा मज़ा
हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
दर्द-ए-दिल कितना पसंद आया उसे
मैं ने जब की आह उस ने वाह की
आसी ग़ाज़ीपुरी
वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले
मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं
शकील बदायूनी
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
हम आह तो करते हैं फ़रियाद नहीं करते
फ़ना निज़ामी कानपुरी
दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी
इंतिहा ये है कि ‘फ़ानी’ दर्द अब दिल हो गया
फ़ानी बदायुनी
दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो
इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो
इब्न-ए-इंशा
सुन चुके जब हाल मेरा ले के अंगड़ाई कहा
किस ग़ज़ब का दर्द ज़ालिम तेरे अफ़्साने में था
शाद अज़ीमाबादी
ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है
गुलज़ार
रास आने लगी दुनिया तो कहा दिल ने कि जा
अब तुझे दर्द की दौलत नहीं मिलने वाली
इफ़्तिख़ार आरिफ़
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
बैठे बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया
वज़ीर अली सबा लखनवी
हाल तुम सुन लो मिरा देख लो सूरत मेरी
दर्द वो चीज़ नहीं है कि दिखाए कोई
जलील मानिकपूरी
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले
सदा अम्बालवी
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है
अहमद फ़राज़
मिरे लबों का तबस्सुम तो सब ने देख लिया
जो दिल पे बीत रही है वो कोई क्या जाने
इक़बाल सफ़ी पूरी
भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है
दर्द बरसात की बूँदों में बसा करता है
मरग़ूब अली
ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा
ऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना
ज़ेब ग़ौरी
कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ से
तुम्हारा दर्द कई काम ले गया मुझ से
फ़रहत अब्बास शाह
ग़म में कुछ ग़म का मशग़ला कीजे
दर्द की दर्द से दवा कीजे
मंज़र लखनवी
दर्द को रहने भी दे दिल में दवा हो जाएगी
मौत आएगी तो ऐ हमदम शिफ़ा हो जाएगी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
यारो नए मौसम ने ये एहसान किए हैं
अब याद मुझे दर्द पुराने नहीं आते
बशीर बद्र
दिल पर चोट पड़ी है तब तो आह लबों तक आई है
यूँ ही छन से बोल उठना तो शीशे का दस्तूर नहीं
अंदलीब शादानी
ऐसा न हो ये दर्द बने दर्द-ए-ला-दवा
ऐसा न हो कि तुम भी मुदावा न कर सको
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दर्द ओ ग़म दिल की तबीअत बन गए
अब यहाँ आराम ही आराम है
जिगर मुरादाबादी
दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा
आह-ओ-ज़ारी ज़िंदगी है बे-क़रारी ज़िंदगी
ग़ुलाम भीक नैरंग
तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
ज़िंदगी बे-मज़ा न हो जाए
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
तल्ख़ियाँ इस में बहुत कुछ हैं मज़ा कुछ भी नहीं
ज़िंदगी दर्द-ए-मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
कलीम आजिज़
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया
अमीर मीनाई
हिचकियाँ रात दर्द तन्हाई
आ भी जाओ तसल्लियाँ दे दो
नासिर जौनपुरी
मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक़ है रज़ा तेरी
मगर टूटेगा रिश्ता दर्द का आहिस्ता आहिस्ता
अहमद नदीम क़ासमी
किस से जा कर माँगिये दर्द-ए-मोहब्बत की दवा
चारा-गर अब ख़ुद ही बेचारे नज़र आने लगे
शकील बदायूनी
हाए कोई दवा करो हाए कोई दुआ करो
हाए जिगर में दर्द है हाए जिगर को क्या करूँ
हफ़ीज़ जालंधरी
दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
दिल से अब दर्द की रुख़्सत नहीं देखी जाती
अख़्तर सईद ख़ान
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
तू ने दुख ऐ दिल-ए-नाकाम बहुत सा पाया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे
नज़ीर बाक़री
दर्द हो दुख हो तो दवा कीजे
फट पड़े आसमाँ तो क्या कीजे
जिगर बरेलवी
कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
चारागरों ने और भी दर्द दिल का बढ़ा दिया
हफ़ीज़ जालंधरी
दर्द का फिर मज़ा है जब ‘अख़्तर’
दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
एक दो ज़ख़्म नहीं जिस्म है सारा छलनी
दर्द बे-चारा परेशाँ है कहाँ से निकले
सय्यद हामिद
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
तुम्हारे दर्द को सीने से हूँ लगाए हुए
असर सहबाई
दर्द-ए-दिल की उन्हें ख़बर क्या हो
जानता कौन है पराई चोट
फ़ानी बदायुनी
ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए
हकीम नासिर
दम-ब-दम उठती हैं किस याद की लहरें दिल में
दर्द रह रह के ये करवट सी बदलता क्या है
जमाल पानीपती
मरज़-ए-इश्क़ को शिफ़ा समझे
दर्द को दर्द की दवा समझे
जिगर बरेलवी
दर्द का ज़ाइक़ा बताऊँ क्या
ये इलाक़ा ज़बाँ से बाहर है
खुर्शीद अकबर
दुख दे या रुस्वाई दे
ग़म को मिरे गहराई दे
सलीम अहमद
करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ
जिस ने दिया था दर्द बड़ा वो हकीम था
अमीर मीनाई